मिश्रित मन के संयोजन से…


अवसादग्रस्त या हूं मैं उन्मुक्त मिश्रित मन के संयोजन से एकत्र शब्दों को मैं करता हूं…

तुम विकृत सी बातें कर खुद को उत्कृष्ट समझते हो, उनमुक्त होने की होड़ में साबित क्या करते हो?

चकित हूं क्या ढूंढने आते हो दिन के उज्यारे में? रक्षक बन दीप्तिमान खुद विराजमान हैं जीवन के चौराहे में।

सुनो ऐ सुधाकर बिना मरीची न हो तुम ज्योतिमान, श्रीपति का आदेश हुआ जो ग्रहण मृगांक में लग जाएगा।

© अमरदीप गौरव

तू तेजस्विनी, तू ओजस्विनी


तू तेजस्विनी, तू ओजस्विनी
तू सफल भी तू कुशल भी
तू साधिका भी तू कृतिका भी
बस तू ही सृष्टि की रचयिता भी
तेरी अतुल्य आकृति को तहे दिल से नमन
तेरी अदम्य साहस को नत्मस्तक प्रणाम
मातृ पुत्री दारा और सहोदरा हर जगह तू
नमन हे नारी शक्ति तेरे हर रूप को नमन।

©अमरदीप गौरव

Happy Women’s Day..!

कल्पना की उड़ान…


साथियों से निवेदन की
अपनी कुर्सी की पेटी बांध लें
कुछ ही समय अंतराल हमसभी
हमारे नए गन्तव्यस्थान काल्पनिक दुनिया में
प्रस्थान करने वाले हैं जहां की खासियत कुछ यूं है…

ना पैसे की चिक चिक
न भूख की टिक टिक
न द्वेष की भावना
न कटाक्ष की परिभाषा
न खोने का गम
न बिछड़ने का डर
न कोई प्रतिस्पर्धा
न कोई प्रतिभागी
न कोई छल
न कोई कपट

बस आप और हम
खुशियों की मलंग
जीवन में आनंद
समय हमारी पावन्द
हर पल बजता मृदंग
जहां उमंग ही उमंग
मुरीद है अपना मंतरंग

कुछ ऐसी अपनी कल्पना
की उड़ान है मगर न जाने
कहाँ ऐसा जहान है…

©अमरदीप गौरव

बस हम तो किरदार ही रह गए..!


प्यारे थे वो लम्हे जाने कहाँ गए
प्यारी थी वो रातें जाने कहाँ गयी
प्यारा था वो सपना जाने कहाँ गया
प्यारा था वो बंधन जाने कहाँ गया…

भटकी हुई बातों में सायद
हम कभी खो गए और न जाने
कब कैसे कहाँ और क्यों
लगभग सरे रिश्ते धूमिल हो गए…

बात हमारी ही कब थी
बात तुम्हारी ही कब थी
वो तो मुद्दा ही उधार का था
और भटकते हम चले गए..!

उम्मीद थी की जगवले संभाल देंगे
मगर उन्हें क्या था एक नया मुद्दा
और एक नई कहानी मिली थी
बस हम तो किरदार ही रह गए..!

अमरदीप गौरव

नमन; नमन हे नारी शक्ति नमन..!


हे नारी हे आदिसक्ति
माँ का दर्जा है तुम्हारा महान
बहन जैसा है दूजा न स्थान
बेटी तो है घर की जान
अर्धांगिनी पत्नी का है दूसरा नाम
आदि भी तू अन्नादि भी तू
श्रोत भी तू दात्री भी तू
अम्बा भी तू कल्याणी भी तू
कण कण में तू जन गण में तू
हे आदिसक्ति नारी हर क्षण में तू
पर एक विडम्बना ऐसी भी
परछाई बन पीछा करते हवस के पुजारी
दहेजः की छाया में घुट जी रही बन बेचारी
एक आवाहन करता हूँ मैं
उठा बरछी ढाल कृपाण कटारी
बन चंडी बन तू काली
अब नहीं तू अवला नारी
पढ़ेगी तू बढ़ेगी तू
गरजेगी तू चमकेगी तू
अम्बा भी तू भवानी भी तू
परचम तेरा और मर्दानी भी तू
उत्क्रिस्ट है तेरा जीवन
हर पल में एक अवतार है तू
नमन; नमन हे नारी शक्ति नमन..!
अमरदीप गौरव

हाँ कौन..?


खट… खट… खट..
हाँ कौन..?
अरे मैं उम्मीद की एक किरण..!
ओह चलो ठीक है तुम आ गयी..!
आ गयी अरे मैं गयी ही कब थी?
तुमने ही मेरी ओर देखना छोड़ा था..!
हे इंसान इतने निराशावादी क्यों हो गए हो?
मेरे साथ तुम्हारे अंदर का विश्वाश भी तो है..!
अपने मनतरंग को रंगों में रंग के तो देखो..!
सतरंगी से हमदोनो को तुम कौतुहल करते पाओगे..!
ओह हाँ मैं तो भूल ही गया था..!
अब तो मैं पूर्ण हूँ; पूरी तरह निपुण हूँ..!
खट… खट… खट…
हाँ कौन..?
अरे देखो तो मैं भी आ गया
तुम्हारा अपना अहंकार..!

अमरदीप गौरव

कदापि अब हर इंसान बदल गया है..!


कैसी रीत बनगयी हे भगवान्
पैसे के चक्कर में खो गया इंसान
हरि तो श्री कृष्ण का है दूजा नाम
मगर हरे रंग में खो गया है सारा जहाँ..!

तीन पग में जहाँ नपा था तीनो लोक
धरती अम्बर और पाताल के लोग
अब तो पग पग के लिए मचा है होड़
एक गज के लिए लग रहे हैं दौड़..!

बाप बेटे का कहाँ भाई भाई का कहाँ
अब तो कहना है की माँ बाप रहें कहाँ
चंद कागज के टुकड़ों से दुनिया में
किसी की कद कैसे मापी जाती है..!

हे वामन अब वो घड़ी आ गयी
आपके आने का समय हो गया है
कलयुग का अंत करो भगवान
कदापि अब हर इंसान बदल गया है..!

अमरदीप गौरव

तुम्हारी धड़कन सुना मैने..!


तुम्हारी धड़कन सुना मैने..!
धक धक धक धक धक धक.!!
तुम्हारी हलचल देखा मैने..!
इधर से उधर … उधर से इधर.!!

कहानी लिखी जा रही है..!
पात्र गढ़े जा रहें हैं.!!
शब्द संजोये जा रहें हैं..!
रंगमंच सजाए जा रहें हैं.!!

तुम्हारे आने का इंतिज़ार…
मैं बेसब्री से कर रहा हूँ..!
तुम्हारी किल्कारियों में खोने…
मैं अभी से खुमार बैठा हूँ.!!

अमरदीप गौरव

भुलाना तो बहुत चाहा तुम्हे मगर यादें तो यादें है


भुलाना तो बहुत चाहा तुम्हे मगर यादें तो यादें है
कभी हम हार जातें हैं तो कभी ये जीत जाती हैं
और बस कुछ यूं ही यादें ही यादें रह जाती हैं
कभी तुम्हारी तो कभी तुम्हारी बातों की यादों में
यूं ही कभी हम हार जातें हैं तो कभी ये जीत जाती है
कभी तन्हाई में हम या हम्मे तन्हाई रह जाती है

अमरदीप गौरव

कैसे बताऊँ की तुम किस कदर जिहन में उतरे हुए हो


कैसे बताऊँ की तुम किस कदर जिहन में उतरे हुए हो
कैसे बताऊँ की आज भी तुम्हारी मुस्कराहट मुझे सुनाई देती है
कैसे बताऊँ की तुम किस कदर मेरे ख्वाबों में छाये हुए हो
कैसे बताऊँ की मेरी आँखे बंद होते ही तुम्हारी आँखे मुझे दिखाई देती हैं
कैसे बताऊँ की तुम्हारी साथ बितायी अरसों पहले की हर शाम मुझे
कैसे बताऊँ की वो शाम मुझे आखिरी शाम सा एहसास कराती हैं
कैसे बताऊँ की तुम्हारे जाने के बाद हर एक सुबह बेमानी सी लगती है
कैसे बताऊँ की इस दिल की धड़कन से तुम्हारी ही नाम निकलती है
कैसे बताऊँ की चाँद अलफ़ाज़ सजाने में तुम हज़ारो बार नजर आती हो
कैसे बताऊँ की अब तो अलफ़ाजें भी तुम्हारे बगैर बेमानी सी समझ आती हैं !!

अमरदीप गौरव